Monday, March 21, 2011

शहद से बंद होगा बालों का झडऩा=


सामान्यत: सभी के यहां शहद आसानी से मिल जाता है। शहद के औषधीय गुण सभी जानते हैं। शहद की तासीर ठंडी होती है और यह कई बीमारियों को दूर करने में सक्षम है। शहद से बालों का झडऩा भी रोका जा सकता है।

आज छोटी उम्र से ही बालों के झडऩे की समस्या देखी जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए शहद और दालचीनी कारगर उपाय है।

बाल झड़ते हैं तो गरम जैतून के तेल में एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर का पेस्ट बनाएं। नहाने से पहले इस पेस्ट को सिर पर लगा लें। 15 मिनट बाद बाल गरम पानी से सिर को धोएं। ऐसा करने पर कुछ ही दिनों बालों के झडऩे की समस्या दूर हो जाएगी।

दालचीनी और शहद के मिश्रण काफी कारगर रहता है। आयुर्वेद के अनुसार इनके मिश्रण से कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। त्वचा और शरीर को चमकदार और स्वस्थ बनाए रखने के लिए इनका उपयोग करना चाहिए।,


दालचीनी से भगाएं मौसमी बीमारियां=


सभी लोगों मौसम परिवर्तन के समय छोटी-छोटी बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं। मौसमी बीमारियां जैसे सर्दी-जुकाम, बुखार, खांसी आदि। इनसे बचने के लिए आयुर्वेद में दालचीनी का उपयोग बताया गया है।


यदि आप अत्यधिक कार्य की वजह से मानसिक तनाव झेल रहे हैं तो रात को सोते समय एक चुटकी दालचीनी पाउडर शहद के साथ लें, इससे सोचने की शक्ति भी बढ़ती है। कुछ ही दिनों तनाव दूर हो जाएगा।

यदि आपका गला बैठ गया है, तो दालचीनी का बारीक पाउडर एक गिलास पानी में उबालें और चुटकीभर कालीमिर्च व शहद के साथ लें।

प्रतिदिन रात को सोते समय दालचीनी का सेवन करें। इससे मौसमी बीमारियों को आपसे दूर रहेंगी।

सिरदर्द होने पर दालचीनी के पाउडर को पानी में मिलाकर पेस्ट बनाकर माथे पर लगाएं।

स्कीन संबंधी बीमारी जैसे कील-मुंहासे, काले दाग-धब्बे होने पर दालचीनी के पाउडर को नीबू के उस में मिलाकर लगाएं।

यदि आपके मुंह से बदबू आती है तो दालचीनी का छोटा टुकड़ा चूसें।

दस्त की समस्या होने पर एक चम्मच दालचीनी पाउडर सुबह-शाम पानी के साथ लें।


32 किशमिश खाने से छू मंतर हो जाएगा ब्लड प्रेशर=

आपको अक्सर चक्कर आते हैं, कमजोरी महसूस होती है तो हो सकता है कि आप लो ब्लड प्रेशर के शिकार हों। ज्यादा मानसिक तनाव, कभी क्षमता से ज्यादा शारीरिक काम करने से अक्सर लोगों में लो ब्लडप्रेशर की शिकायत होने लगती है।

कुछ लोग इसे नजरअन्दाज कर देते हैं तो कुछ लोग डॉक्टर के यहां चक्कर लगाकर परेशान हो जातें हैं। लेकिन आयुर्वेद में लो ब्ल्डप्रेशर को कन्ट्रोल करने के लिए कारगर इलाज है वो है किशमिश। नीचे बताई जा रही विधि को लगातार 32 दिनों तक प्रयोग में लाने से आपको कभी भी लो ब्लड प्रेशर की शिकायत नहीं होगी।
-32 किशमिश लेकर एक चीनी के बाउल में पानी में डालकर रात भर भिगोएं। सुबह उठकर भूखे पेट एक-एक किशमिश को खूब चबा-चबा कर खाएं,पूरे फायदे के लिए हर किशमिश को बत्तीस बार चबाकर खाएं। इस प्रयोग को नियमित बत्तीस दिन करने से लो ब्लडप्रेशर की शिकायत कभी नहीं होगी।
विशेष-जिसको लो बी पी की शिकायत हो और अक्सर चक्कर आते हों तो आवलें के रस में शहद मिलाकर चाटने से जल्दी आराम होता है।
-लो बी पी के समय व्यक्ति को ज्यादा बोलना नहीं चाहिए। चुपचाप बायीं करवट लेट जाना चाहिए थोड़ी देर में नीदं आ जाएगी और लो बी पी में फायदा होगा।


नींबू के रोजाना प्रयोग से होता है रंग गोरा=

आज की भौतिकतावादी युग में हर कोई सुन्दर दिखना चाहता है। किसी लडके की शादी के लिए उसके मां बाप गोरी लडकी ही चाहते है। लडकियां अपने पति का रंग गोरा ही चाहती हैं ।अगर आप अपने सांवले रंग से परेशान हैं तो घबराइये नहीं कुछ आसान आयुर्वेद नुस्खे ऐसे हैं जिनसे आपका सांवलापन दूर हो सकता है।

1. एक बाल्टी ठण्डे या गुनगुने पानी में दो नींबू का रस मिलाकर गर्मियों में कुछ महीने तक नहाने से त्वचा का रंग निखरने लगता है (इस विधि को करने से त्वचा से सम्बन्धी कई रोग ठीक हो जाते हैं )।

2. आंवला का मुरब्बा रोज एक नग खाने से दो तीन महीने में ही रंग निखरने लगते है।

3. गाजर का रस आधा गिलास खाली पेट सुबह शाम लेने से एक महीने में रंग निखरने लगता है।

रोजाना सुबह शाम खाना खाने के बाद थोड़ी मात्रा में सांफ खाने से खून साफ होने लगता है और त्वचा की रंगत बदलने लगती है।,अब न हों परेशान मुहासों से=

सही खानपान न होने के कारण और चारों ओर फैले प्रदूषण से अधितर लोग चेहरे पर मुहासों की समस्या से परेशान हैं। काफी कोशिशों के बाद भी उन्हें इस समस्या से छुटकारा नहीं मिलता। लेकिन आयुर्वेद में कुछ ऐसे नुस्खें बताए गए हैं जिनके प्रयोग से आपको मुहासों की इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।

- नीबूं के रस में गुलाबजल मिलाकर चेहरे पर लगाएं। तीस मिनट बाद चेहरा सादा पानी से धो लें।

-गाय के कच्चे दूध में जायफल को घिस लें और पेस्ट तैयार करें, इस पेस्ट को चेहरे पर लगाएं फिर सूखने के बाद उबटन की तरह छुड़ा लें इसके बाद गुनगुने पानी से चेहरा धो लें। इस प्रयोग से 4 से 5दिनों के अन्दर ही मुहासे गायब होने लगेंगे और उनके दाग भी नहीं बनेंगे।

- जैतून के तेल को रोज रात में सोते समय चेहरे पर लगाएं ऐसा करने से मुहासे और चेहरे पर हो रही फुंसियां ठीक हो जाती हैं।

क्या आपको कुछ याद नहीं रहता...?

आजकल अच्छा खान पान न होने की वजह से याददाश्त का कमजोर होना एक आम समस्या बन गई है।हर आदमी अपनी भूलने की आदत से परेशान है लेकिन अब आपको परेशान हो की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आयुर्वेद में इस बीमारी को दूर करने के सरलतम उपाय बताए हैं।


1. सात दाने बादाम के रात को भिगोकर सुबह छिलका उतार कर बारीक पीस लें । इस पेस्ट को करीब 250 ग्राम दूध में डालकर तीन उबाल लगाऐं। इसके बाद इसे नीचे उतार कर एक चम्मच घी और दो चम्मच शक्कर मिलाकर ठंडाकर पीऐं। 15 से 20 दिन तक इस विधि को करने से याददाश्त तेज होती है।

2. भीगे हुए बादाम को काली मिर्च के साथ पीस लें या ऐसे ही खूब चबाचबाकर खाऐं और ऊपर से गुनगुना दूध पी लें।

3. एक चाय का चम्मच शंखपुष्पी का चूर्ण दूध या मिश्री के साथ रोजाना तीन से चार हफ्ते तक लें ।

विशेष: सिर का दर्द, आंखों की कमजोरी, आंखों से पानी आना, आंखों में दर्द होने जैसे कई रोगों में यह विधि लाभदायक है


क्या आपको चश्मा लगा है...?

आजकल काम या पढ़ाई के कारण जरूरत से ज्यादा आंखों पर बोझ पड़ रहा है। पौष्टिक खाने की कमी के कारण भी अधिकाशंत लोगो की आखे कमजोर होती जा रही हैं । अक्सर देखने में आता है कि छोटे-छोटे बच्चों को भी जल्दी ही मोटे नम्बर का चश्मा चढ़ जाता है।अगर आपको भी चश्मा लगा है तो आपका चश्मा उतर सकता है। नीचे बताए नुस्खों को करीब चालीस दिनों तक प्रयोग में लाएं निश्चित ही आपकी आखें पर लगा चश्मा उतर जाएगा साथ थी आखों की रोशनी भी तेज होगी।

1. बादाम की गिरी, सौंफ बड़ी वाली और कूजा मिश्री(कूजा मिश्री न मिले तो साधारण मिश्री भी ले सकते हैं)तीनों को बराबर मात्रा में मिलाकर बारीक पीसकर चूर्ण बना लें। रोज एक चम्मच एक गिलास दूध के साथ रात को सोते समय लें ।

लाभ- इस विधि को अपनाने से दिमाग की गर्मी शांत होती है, याददाश्त तेज होती है साथ ही बातों को भूल जाने की बिमारी भी खत्म हो जाती है।
2. पैर के तलवों में सरसों का तेल मालिश करने से आखों की रोशनी तेज होती है।

3. सुबह उठते ही मुंह में ठण्डा पानी भरकर मुंह फुलाकर आखों में छींटे मारने से आखें की रोशनी बढ़ती है।

4. त्रिफला के पानी से आखें धोने से आखों की रोशनी तेज होती है


क्या आप मुंह के छालों से परेशान है..

आज असंतुलित खान पान की वजह के कारण मुंह में छाले होना, पेट का खराब होना आम समस्या हो गई है। कई तरह की दवाईयां इस्तेमाल करने के बाद भी लोगों के मुह के छाले ठीक नहीं हो पातेहैं।घबराइए नहीं जो छाले किसी भी दवा से ठीक नहीं हो रहे हैं नीचे दिए जा रहे नुस्खों से निश्चित ही ठीक हो जाऐंगे।


1. छोटी हरड़ को बारीक पीसकर छालों पर दिन में दो तीन बार लगाने से मुंह तथा जबान दोनों के छाले ठीक हो जाते हैं।

2. तुलसी की चार पांच पत्तियां रोजना सुबह और शाम को चबाकर ऊपर से थोड़ा पानी पी लें( ऐसा चार पांच दिनों तक करें) ।

3. करीब दो ग्राम सुहागे का पावडर बनाकर थोड़ी सी ग्लिसरीन में मिलाकर छालों पर दिन में दो तीन बार लगाएं छालों में जल्दी फायदा होगा।

विशेष- जिन लोगों को बार-बार छाले होने की शिकायत रहती उन्हें टमाटर जादा खाने चाहिए।

Tuesday, March 15, 2011

स्वभाव से आदमी बनता है बडा़(Source: धर्म डेस्क. उज्जैन )

व्यक्ति के हृदय में अहंकार आते ही उसे नष्ट होते देर नहीं लगती। अहंकारी को हर जगह उपेक्षा ही मिलती है। जबकि विनम्र को न केवल अपने जीवन में बल्कि परमात्मा के यहां भी यश और सम्मान मिलता है।

महाभारत का प्रसंग है। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भीष्म पितामह शैय्या पर लेटे जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटि के ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभव से संपन्न हैं। इसलिए वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह। आप विदा की इस बेला में हमें जीवन के लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो हमेशा हमारा मार्गदर्शन करें।

तब भीष्म ने बड़ा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया। नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जल के प्रवाह के साथ बड़े-बड़े वृक्षों को भी बहाकर ले आती है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया। तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बड़े-बड़े वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं। तुम पलभर में उन्हें कहां से कहां ले आती हो? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधों को बहाकर नहीं ला पाती। नदी का उत्तर था जब-जब मेरे जल का बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे रास्ता दे देती हैं। किंतु वृक्ष अपनी कठोरता के कारण यह नहीं कर पाते, इसलिए मेरा प्रवाह उन्हें बहा ले आता है।

इस छोटे से उदाहरण से हमें सीखना चाहिए कि जीवन में सदैव विनम्र रहे तभी व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है।सभी पांडवों ने भीष्म के इस उपदेश को ध्यान से सुनकर अपने आचरण में उतारा और सुखी हो गए।


कुछ ऐसे ही विनम्रता के ज़स्बातों को दर्शाने के लिए यह शेर अर्ज़ है --

आंधियां मजबूत दरखतों को पटक कर चली जायेंगी ,
बचेंगी वही शाख जो लचक के झुक जायेंगी .

Thursday, March 10, 2011

आपको मालामाल बना देगा यह शंख (Source: धर्म ङेस्क. उज्जैन )

जब भी घर में किसी तरह की पूजा की जाती है, तो उसमे शंख जरूर रखा जाता है। शंख को शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। घर के पूजास्थल में जो वामावर्ती शंख रखा जाता है उसे विष्णु का और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। शंख का एक और बहुत सुन्दर रूप मोती शंख को श्री यंत्र का प्राकृतिक स्वरूप माना गया है। मोती शंख दोनों शंख से देखने में ज्यादा सुन्दर दिखाई देता है। इसका उपयोग तंत्र क्रियाओं में किया जाता है। कुछ साधारण तंत्र प्रयोग इस प्रकार हैं-

-यदि इस शंख को कारखाने में स्थापित किया जाए तो कारखाने में तेजी से आर्थिक उन्नति होती है।

-यदि मोती शंख को मंत्र सिद्ध व प्राण प्रतिष्ठा पूजा कर स्थापित किया जाए तथा उसमें जल भरकर लक्ष्मी के चित्र के साथ रखा जाए तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है और आर्थिक उन्नति होती है।

-मोती शंख को घर में स्थापित कर यदि रोज ऊं श्रीं महालक्ष्मैय नम: ग्यारह बार बोलकर एक- एक चावल का दाना शंख में भरते रहे। इस प्रकार ग्यारह दिन तक प्रयोग करें। यह प्रयोग करने से आर्थिक तंगी समाप्त हो जाती है।

-यदि व्यापार में घाटा हो रहा है। दुकान में आय नहीं हो रही हो तो एक मोती शंख दुकान के गल्ले में रखा जाये तो इससे व्यापार में वृद्धि होती है।


गुरु हो अशुभ तो यह टोटके करें

Source: धर्म डेस्क. उज्जैन |


व्यक्ति की कुंडली में गुरु अशुभ होता है उसकी पढ़ाई में कई परेशानियां आती हैं। या तो उसकी पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है या फिर अन्य किसी कारण से वह अधिक नहीं पढ़ पाता। जिस व्यक्ति की कुंडली में गुरु अशुभ होता है उसके सिर के बाल उड़ जाते हैं, उसके मान-सम्मान में कमी आती है तथा गले के रोग हो जाते हैं। गुरु के अशुभ प्रभावों को कम करने के लिए कुछ साधारण टोटके इस प्रकार हैं-

उपाय-

- गुरुवार का व्रत रखें।

- केसर का सेवन करें तथा सोने की अंगूठी धारण करें।

- पीले फूल एवं फलों से ब्रह्माजी का पूजन करें। इसके बाद फलों को प्रसाद के रूप में बांट दें।

- मस्तक पर पीला चंदन, हल्दी अथवा केसर का तिलक करें।

- पीपल के वृक्ष में प्रतिदिन पानी डालें।

- बारह बादाम कपड़े में बांधकर लोहे के बर्तन में बंद करके अपने पास रखें और उसे खोलकर नहीं देंखे।

- कपिला (केसरिया रंग की) गाय की पूजा करें।

- पीले कपड़े में चने की दाल बांधकर दान करें।..


मंगल को जन्मे, मंगल ही करते हैं हनुमान
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हनुमान को संकट मोचन कहा गया है। वे पलभर में ही भक्तों के बड़े-बड़े संकट समाप्त कर देते हैं। हनुमानजी सीताराम के आर्शीवाद से अष्टचिरंजिव में शामिल है। अत: वे भगवान शिव की तरह ही तुरंत प्रसन्न होने वाले और भक्तों पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाले हैं। ऐसी मान्यता है कि हनुमानजी का जन्म मंगलवार को हुआ। अत: मंगलवार के दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है।

जहां-जहां श्रीराम का नाम पूरी श्रद्धा से लिया जाता है हनुमानजी वहां किसी ना किसी रूप में अवश्य प्रकट होते हैं। ऐसी कई कथाएं हैं जहां हनुमान ने श्रीराम के भक्तों का पूर्ण कल्याण किया है। हनुमान के नाम मात्र से ही भूत पिशाच निकट नहीं आते। सारी समस्याएं स्वत: ही समाप्त हो जाती है।

हनुमानजी ही ऐसे भक्त और भगवान हैं जो हमारे सभी दुख और परेशानियों का समाधान कुछ ही क्षण में कर सकते हैं। बस आवश्यकता है तो सभी अधार्मिक कार्यों और कुसंगति को छोड़कर श्रीराम की श्रद्धा और भक्ति में मन लगाने की।

मंगलवार के दिन हनुमानजी की पूजा से सभी मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि पवनपुत्र की पूजा के लिए कोई विशेष मुहूर्त या दिन नहीं है। हम कभी भी सच्चे मन से हनुमानजी का स्मरण, पूजन-अर्चन कर सकते हैं।

सभी परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए हनुमान चालिसा का पाठ सबसे सरल और सुलभ उपाय है। प्रतिदिन हनुमान चालिसा का पाठ करने वाले भक्तों को सभी सुख और धन की प्राप्ति होती है। ऐसे लोगों को किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होती।


किराए के घर में कैसे बढ़ेगा पैसा?

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काफी लोगों का सपना होता है कि उनका अपना सुंदर सा आशियाना हो लेकिन सभी का यह सपना पूरा नहीं हो पाता। जो लोग किराए के घर में रहते हैं वहां के वास्तु दोष की वजह से अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं कर पाते और खुद के घर का सपना, सपना ही रह जाता है। घर का सही वास्तु हमारी आय बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अगर आप रेंट पर फ्लेट लेते हैं या किराए का घर है तो मकान मालिक की बिना अनुमति मकान में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। ऐसे घरों में अक्सर वास्तु शास्त्र के अनुसार कई कमियां रहती हैं। इन दोषों की वजह से वहां रहने वाले लोगों को धन की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वास्तु के अनुसार बने घर में किराएदार भी सुखी और संपन्न और धनवान रहते हैं। यदि आप भी चाहते हैं कि आपके घर में किसी तरह का वास्तुदोष ना रहे तो इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर किराए के भवन में रहते हुए भी वास्तुदोष दूर किया जा सकते हैं। वास्तु दोष दूर होने के बाद आपके परिवार की आय में बढ़ोतरी होगी और पैसों की तंगी नहीं रहेगी।

- घर का उत्तर-पूर्व का भाग खाली रखें।

- घर के दक्षिण-पश्चिम दिशा के भाग में अधिक भार या सामान रखें।

- घर में पानी की सप्लाई उत्तर-पूर्व दिशा से लें।

- बेड रूम में पलंग का सिरहाना दक्षिण दिशा में रखें और सोते समय सिर दक्षिण दिशा में व पैर उत्तर दिशा में रखें। यदि ऐसा संभव न हो तो पश्चिम दिशा में सिरहाना व सिर कर सकते हैं।

- खाना हमेशा दक्षिण-पूर्व की ओर मुंह करके ही खाएं।

- आपकी आय काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि घर में भगवान का स्थान या मंदिर कहां है? वास्तु के अनुसार भगवान के लिए उत्तर-पूर्व दिशा श्रेष्ठ रहती है। इस दिशा में मंदिर स्थापित करें। यदि मंदिर किसी ओर दिशा में हो तो पानी पीते समय मुंह ईशान कोण यानि उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रखें।

इस मंत्र से मिलेगा अपार धन

ी लक्ष्मी की जिस पर कृपा हो जाए उस व्यक्ति को जीवन में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती। पैसा, इज्जत, शोहरत सभी कुछ उसके पास होता है। देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए अनेक मंत्र, स्तुति व श्लोकों की रचना कई गई है। इन्हीं में श्री लक्ष्मी द्वादशनाम स्तोत्रम् भी एक है।

इस स्त्रोत का प्रतिदिन जप करने से मां लक्ष्मी शीघ्र ही प्रसन्न हो जाती है और साधक को मनचाहा फल प्रदान करती है। यह स्तुति इस प्रकार है-
श्री लक्ष्मी द्वादशनाम स्तोत्रम्-

ईश्वरीकमला लक्ष्मीश्चलाभूतिर्हरिप्रिया।

पद्मा पद्मालया संपत् रमा श्री: पद्मधारिणी।।

द्वादशैतानि नामानि लक्ष्मी संपूज्य य: पठेत्।

स्थिरा लक्ष्मीर्भवेत्तस्य पुत्रदारादिभिस्सह।।



जप विधि

- सुबह जल्दी उठकर नहाकर साफ वस्त्र पहनकर देवी लक्ष्मी का पूजन करें। उन्हें लाल गुलाब के फूल अर्पित करें।

- देवी लक्ष्मी की मूर्ति के सामने आसन लगाकर स्फटिक की माला लेकर इस स्त्रोत का जप करें। प्रतिदिन पांच माला जप करने से उत्तम फल मिलता है।

- आसन कुश का हो तो अच्छा रहता है।

- एक ही समय, आसन व माला हो तो यह स्त्रोत जल्दी ही सिद्ध हो जाता है।..

हर समस्या का हल है राम स्तोत्र

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हर इंसान के जीवन में परेशानियों का आना-जाना लगा ही रहता है। कई बार समस्याएं इतनी अधिक हो जाती हैं कि इंसान टूट सा जाता है उसे कोई हल सुझाई नहीं देता। ऐसे में सिर्फ भगवान का सहारा ही उसे बचा सकता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम का नाम लेने मात्र से सभी समस्याओं का निदान संभव है। यदि नित्य राम स्तोत्र का पाठ किया जाए तो ऐसी कोई मनोकामना नहीं जिसे भगवान राम पूरी नहीं करते। राम स्तोत्र भगवान राम की उपासना करने बहुत ही सरल व सहज माध्यम है-

राम स्तोत्र-
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने।।

जप विधि

- सुबह जल्दी उठकर नहाकर साफ वस्त्र पहनकर प्रभु श्रीराम का पूजन करें।

- भगवान राम की मूर्ति के सामने आसन लगाकर रुद्राक्ष की माला लेकर इस स्तोत्र का जप करें। प्रतिदिन पांच माला जप करने से उत्तम फल मिलता है।

- आसन कुश का हो तो अच्छा रहता है।

- एक ही समय, आसन व माला हो तो यह स्तोत्र जल्दी ही सिद्ध हो जाता है।......


वास्तु शांति के शुभ मुहूर्त

नए घर में प्रवेश से पूर्व वास्तु शांति अर्थात यज्ञादि धार्मिक कार्य अवश्य करवाने चाहिए। वास्तु शांति कराने से भवन की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है तभी घर शुभ प्रभाव देता है। जिससे जीवन में खुशी व सुख-समृद्धि आती है। वास्तु शास्त्र के अनुसार मंगलाचरण सहित वाद्य ध्वनि करते हुए कुलदेव की पूजा व अग्रजों का सम्मान करके व ब्राह्मणों को प्रसन्न करके गृह प्रवेश करना चाहिए। गृह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र वार एवं तिथि इस प्रकार हैं-

शुभ वार- सोमवार, बुधवार, गुरुवार, व शुक्रवार शुभ हैं।

शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी।

शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्ताफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा।

अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए।.........

Sunday, March 6, 2011

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।


सोमनाथ / कैफी़ आज़मी

बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है..



तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो / कैफ़ी आज़मी
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर

क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो ....


ये बता दे मुझे ज़िन्दगी / जावेद अख़्तर

ये बता दे मुझे ज़िन्दगी

प्यार की राह के हमसफ़र
किस तरह बन गये अजनबी
ये बता दे मुझे ज़िन्दगी
फूल क्यूँ सारे मुरझा गये
किस लिये बुझ गई चाँदनी
ये बता दे मुझे ज़िन्दगी

कल जो बाहों में थी
और निगाहों में थी
अब वो गर्मी कहाँ खो गई
न वो अंदाज़ है
न वो आवाज़ है
अब वो नर्मी कहाँ खो गई
ये बता दे मुझे ज़िन्दगी

बेवफ़ा तुम नहीं
बेवफ़ा हम नहीं
फिर वो जज़्बात क्यों सो गये
प्यार तुम को भी है
प्यार हम को भी है
फ़ासले फिर ये क्या हो गये
ये बता दे मुझे ज़िन्दगी



शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा / कैफ़ी आज़मी

शोर यूँ ही न परिंदों[1] ने मचाया होगा,

कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा ।

बानी-ए-जश्ने-बहाराँ[2] ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा ।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब[3] उन को समंदर नज़र आया होगा ।

बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा ।

शब्दार्थ:

  1. पक्षियों
  2. वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों
  3. धोखा

ताजमहल की छाया में / सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

रचनाकाल/स्थल : २० दिसम्बर १९३५, आगरा





मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने


जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / मंगलाचरण

गगन के उस पार क्या,
पाताल के इस पार क्या है?
क्या क्षितिज के पार? जग
जिस पर थमा आधार क्या है?

दीप तारों के जलाकर
कौन नित करता दिवाली?
चाँद - सूरज घूम किसकी
आरती करते निराली?

चाहता है सिन्धु किस पर
जल चढ़ाकर मुक्त होना?
चाहता है मेघ किसके
चरण को अविराम धोना?

तिमिर - पलकें खोलकर
प्राची दिशा से झाँकती है;
माँग में सिन्दूर दे
ऊषा किसे नित ताकती है?

गगन में सन्ध्या समय
किसके सुयश का गान होता?
पक्षियों के राग में किस
मधुर का मधु - दान होता?

पवन पंखा झल रहा है,
गीत कोयल गा रही है।
कौन है? किसमें निरन्तर
जग - विभूति समा रही है?

तूलिका से कौन रँग देता
तितलियों के परों को?
कौन फूलों के वसन को,
कौन रवि - शशि के करों को?

कौन निर्माता? कहाँ है?
नाम क्या है? धाम क्या है?
आदि क्या निर्माण का है?
अन्त का परिणाम क्या है?

खोजता वन - वन तिमिर का
ब्रह्म पर पर्दा लगाकर।
ढूँढ़ता है अन्ध मानव
ज्योति अपने में छिपाकर॥

बावला उन्मत्त जग से
पूछता अपना ठिकाना।
घूम अगणित बार आया,
आज तक जग को न जाना॥

सोचता जिससे वही है,
बोलता जिससे वही है।
देखने को बन्द आँखें
खोलता जिससे वही है॥

आँख में है ज्योति बनकर,
साँस में है वायु बनकर।
देखता जग - निधन पल - पल,
प्राण में है आयु बनकर॥

शब्द में है अर्थ बनकर,
अर्थ में है शब्द बनकर।
जा रहे युग - कल्प उनमें,
जा रहा है अब्द बनकर॥

यदि मिला साकार तो वह
अवध का अभिराम होगा।
हृदय उसका धाम होगा,
नाम उसका राम होगा॥

सृष्टि रचकर ज्योति दी है,
शशि वही, सविता वही है।
काव्य - रचना कर रहा है,
कवि वही, कविता वही है॥


सारंग, काशी
चैत्री, संवत १९९६..


चेतक की वीरता / श्यामनारायण पाण्डेय

रणबीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि मस्तक पर कहाँ नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में

बढते नद सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
बिकराल बज्रमय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया।

भाला गिर गया गिरा निशंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग.........

Saturday, March 5, 2011

माँ / जगदीश व्योम

माँ कबीर की साखी जैसी

तुलसी की चौपाई-सी

माँ मीरा की पदावली-सी

माँ है ललित रूबाई-सी।


माँ वेदों की मूल चेतना

माँ गीता की वाणी-सी

माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी

लोकोक्तर कल्याणी-सी।


माँ द्वारे की तुलसी जैसी

माँ बरगद की छाया-सी

माँ कविता की सहज वेदना

महाकाव्य की काया-सी।


माँ अषाढ़ की पहली वर्षा

सावन की पुरवाई-सी

माँ बसन्त की सुरभि सरीखी

बगिया की अमराई-सी।



माँ यमुना की स्याम लहर-सी

रेवा की गहराई-सी

माँ गंगा की निर्मल धारा

गोमुख की ऊँचाई-सी।


माँ ममता का मानसरोवर

हिमगिरि सा विश्वास है

माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी

कावा है कैलाश है।


माँ धरती की हरी दूब-सी

माँ केशर की क्यारी है

पूरी सृष्टि निछावर जिस पर

माँ की छवि ही न्यारी है।


माँ धरती के धैर्य सरीखी

माँ ममता की खान है

माँ की उपमा केवल है

माँ सचमुच भगवान है।



चिड़िया और बच्चे / जगदीश व्योम

चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ, चूँ-चूँ

भूख लगी मैं क्या खाऊँ
बरस रहा बाहर पानी
बादल करता मनमानी
निकलूँगी तो भीगूँगी
नाक बजेगी सूँ-सूँ, सूँ
चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ चूँ .......



माँ बादल कैसा होता ?
क्या काजल जैसा होता
पानी कैसे ले जाता है ?
फिर इसको बरसाता क्यूँ ?
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......



मुझको उड़ना सिखला दो
बाहर क्या है दिखला दो
तुम घर में बैठा करना
उड़ूँ रात-दिन फर्रकफूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......



बाहर धरती बहुत बड़ी
घूम रही है चाक चढ़ी
पंख निकलने दे पहले
फिर उड़ लेना जी भर तू
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......



उड़ना तुझे सिखाऊँगी
बाहर खूब घुमाऊँगी
रात हो गई लोरी गा दूँ
सो जा, बोल रही म्याऊँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ ?.....


बचपन / जगदीश व्योम

छीनकर खिलौनो को बाँट दिये गम ।

बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।

अच्छी तरह से अभी पढ़ना न आया

कपड़ों को अपने बदलना न आया

लाद दिए बस्ते हैं भारी-भरकम।

बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।


अँग्रेजी शब्दों का पढ़ना-पढ़ाना

घर आके दिया हुआ काम निबटाना

होमवर्क करने में फूल जाये दम।

बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।


देकर के थपकी न माँ मुझे सुलाती

दादी है अब नहीं कहानियाँ सुनाती

बिलख रही कैद बनी, जीवन सरगम।

बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।


इतने कठिन विषय कि छूटे पसीना

रात-दिन किताबों को घोट-घोट पीना

उस पर भी नम्बर आते हैं बहुत कम।

बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।।

ओस / सोहनलाल द्विवेदी

हरी घास पर बिखेर दी हैं
ये किसने मोती की लड़ियाँ?
कौन रात में गूँथ गया है
ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ?

जुगनू से जगमग जगमग ये
कौन चमकते हैं यों चमचम?
नभ के नन्‍हें तारों से ये
कौन दमकते हैं यों दमदम?

लुटा गया है कौन जौहरी
अपने घर का भरा खजा़ना?
पत्‍तों पर, फूलों पर, पगपग
बिखरे हुए रतन हैं नाना।

बड़े सवेरे मना रहा है
कौन खुशी में यह दीवाली?
वन उपवन में जला दी है
किसने दीपावली निराली?

जी होता, इन ओस कणों को
अंजली में भर घर ले आऊँ?
इनकी शोभा निरख निरख कर
इन पर कविता एक बनाऊँ।


यह धरती कितना देती है / सुमित्रानंदन पंत

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

Friday, March 4, 2011

आखिर इस दिल की पुकारों में तुझको देख लिया / गुलाब खंडेलवाल

आखिर इस दिल की पुकारों में तुझको देख लिया
डूबते वक़्त किनारों में तुझको देख लिया

यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा, मगर
हमने कुछ प्यार के मारों में तुझको देख लिया

फिर कभी लौटके आयी नहीं खुशबू वैसी
दिल ने सौ बार बहारों में तुझको देख लिया

हमने पायी है वही टूटते दिल की तस्वीर
जिन्दगी! चाँद-सितारों में तुझको देख लिया

तू भले ही रहा दुनिया से अलग होके गुलाब!
पर किसी ने था हज़ारों में तुझको देख लिया.




अश्रु यह पानी नहीं है / महादेवी वर्मा


अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,

यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,

स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,

मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !

शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,

प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को

देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,

कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,

अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले ।

यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को

मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है ।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,

मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले?

खो रहे उच्छ्‌वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,

साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,

पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा

प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है ।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,

तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ

समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,

निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,

वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।

क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !


आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,

खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,

साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,

वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !

आज मंदिर के मुखर घड़ियाल घंटों में न बोलो

अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !




फूल और काँटा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता ।

मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।

छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन ।

फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला ।

है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर ।

Thursday, March 3, 2011

किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है......



माँ कह एक कहानी / मैथिलीशरण गुप्त


."माँ कह एक कहानी।"

बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ-हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी।"
"सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लँ तेरी बानी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।

कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।"


चारु चंद्र की चंचल किरणें / मैथिलीशरण गुप्त

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।

पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,

मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥


पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,

जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?

भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥


किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,

राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।

बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,

जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!


मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,

तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।

वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,

विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥


कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;

आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।

बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,

मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-


क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;

है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?

बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,

पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!


है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,

रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।

और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,

शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।


सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,

अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!

अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,

पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥


तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,

वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।

अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।

किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!


और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।

कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;

पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!


नर हो, न निराश करो मन को / मैथिलीशरण गुप्त



नर हो, न निराश करो मन को


कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो


दोनों ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त

दोनों ओर प्रेम पलता है।

सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता

कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?

क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?

शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,

किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।

मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

हरी हरी दूब पर / अटल बिहारी वाजपेयी

हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|

क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदों को ढूंढूँ?

सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी|


ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी


ऊँचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।


ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।


सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।


ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।


धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।


न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

Tuesday, March 1, 2011

एक बूँद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर .



पुष्प की अभिलाषा / माखनलाल चतुर्वेदी



चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।



कोयल / सुभद्राकुमारी चौहान
.
देखो कोयल काली है पर
मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक कूक कर
आमों में मिश्री घोली

कोयल कोयल सच बतलाना
क्या संदेसा लायी हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर
इस डाली पर आई हो

क्या गाती हो किसे बुलाती
बतला दो कोयल रानी
प्यासी धरती देख मांगती
हो क्या मेघों से पानी?

कोयल यह मिठास क्या तुमने
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी
बोली यह सिखलायी है?

डाल डाल पर उड़ना गाना
जिसने तुम्हें सिखाया है
सबसे मीठे मीठे बोलो
यह भी तुम्हें बताया है

बहुत भली हो तुमने माँ की
बात सदा ही है मानी
इसीलिये तो तुम कहलाती
हो सब चिड़ियों की रानी



मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहा

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।

गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥



यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।