Tuesday, March 1, 2011

कांच नहीं मिटटी हूँ / मंजुला सक्सेना

कांच नहीं मिटटी हूँ
टूटी हूँ फूटी हूँ
आँधियों में उड़ाती हूँ
गह्वरों में जमती हूँ
मिटती ही रहती हूँ
व्यर्थ नहीं जीती हूँ .
पैरों से रौंद लो ,
खेतों में जोत दो ,
भट्टियों में झोंक दो ,
नदियों में फ़ेंक दो .
फूल पर खिलाऊँगी
फसलें फिर उगाउंगी,
घर नए बसाउंगी.
ठोस बन के उभरूंगी
नए शहर बसाउंगी .
कांच नहीं मिटटी हूँ
हार नहीं पाउंगी

गीता का बारवाँ अध्याय 'गीता का हृदय ' है

‍गीता महत्व » श्रीमद्‍भगवद्‍गीता » अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग


(साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय)

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए (अर्थात गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में लिखे हुए प्रकार से निरन्तर मेरे में लगे हुए) जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥

भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥

भावार्थ : उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥5॥

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥

भावार्थ : परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। (इस श्लोक का विशेष भाव जानने के लिए गीता अध्याय 11 श्लोक 55 देखना चाहिए)॥6॥

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥

भावार्थ : मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8॥

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥

भावार्थ : यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥9॥

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥10॥

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥

भावार्थ : यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में विस्तार देखना चाहिए) कर॥11॥

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥

भावार्थ : मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग (केवल भगवदर्थ कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान से 'कर्मफल का त्याग' श्रेष्ठ कहा है) श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥

(भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण)

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥

भावार्थ : जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥13-14॥

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥

भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है॥15॥

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥

भावार्थ : जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए) चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥16॥

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥

भावार्थ : जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥17॥

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥

भावार्थ : जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥

भावार्थ : जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥19॥

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥

भावार्थ : परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥20॥


तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥

श्री भगवान बोले-

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दो क्षणद के इस जीवन में, क्या 'खोना' क्या 'पाना' है,
माटी से तू बना है मानव, फिर इसी में मिल जाना है!

धन-दौलत के मोह में आकर, मानवता को भूलजाना है,
शाम सवेरे दृष्टि में अब तो, यही किस्सा पुराना है!

लालस की नैया को जान ले, एक दिन डूब ही जाना है,
मानवता का जो करे है आदर, वही मनुष्य सयाना है!

वास्तु-मोह में फसे मनष्य को ये, फिर से याद दिलाना है,
जीवन की ये परीक्षा पूर्ण कर, इश्वर के घर जाना है!

धन दौलत सब वास्तु हैं इनको, यहीं छोढ़ कर जाना है,
बस कर्मों के ही चिंता कर तू, के इन्ही को साथ ले-जाना है!


हाथो में चावल के दाने लिए
जब पहुँचा घोंसले के पास
आहा! क्या द्रश्य था वो!!
कुछ दीनो. से जिसकी आवाज़ मैं
रोज़ सुना करता था
आज वो चिडिया का बच्चा
घोंसले में से झाँक के बाहर
मानो अपना मासूम सा चेहरा मुझे दिखा रहा हो
उसकी मासूम सी आँखों से
मुझ को टुकूर-टुकूर वो देख रहा था
और जैसे मेरे हाथों में चावल के दाने देख
मुझसे मानो कुछ कह रहा हो
अर्रे! आप आ गये ? रोज़ की तरह
मेरा भोजन लेकर!!
मैने भी फिर मन ही मन कहा
हाँ मासूम ! चल आ और जल्दी से अपना भोजन कर ले
क्यूंकी अब तुम बड़े हो गये हो
देखो तुम्हारी माँ बाहर बैठी है
आज वो तुम्हे भोजन देने घोंसले मे नहीं आएँगी
आज खुद बाहर आके ही भोजन तुम्हे लेना होगा
इन प्यारी सी बातों को सोचते हुए अचानक ही
उसकी माँ ने उसे पुकारा सामने से
वो अपनी माँ की आवाज़ सुन के
जैसे चौकन्ना हो गया!
मेरी पल्के जैसे ही झपकी तो उस मासूम ने
अपने पंख फैलाए
उसकी माँ ने भी उसका हॉंसला बढ़ाया
पर वो नाकाम रहा!
डरा हुआ , सहमा हुआ ! बेचारा
मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये
के माँ ने मुझे भी ऐसे चलना सिखाया होगा
पर उसने हार ना मानी माँ ने फिर आवाज़ लगाई
ईस बार कोशिश कामयाब रही
पँखो को हवाओं मे फैला कर
ऐसी उड़ान भरी !
जैसे वो मासूम कह रहा हो
की माँ देखो मैने कर दिखाया
मैने पूरा जग जीत लिया!
माँ के पास जल्दी से जाके बैठ गया
नन्हा मासूम सा
और आज देखा की उस मासूम ने
सच मे ऐसी उड़ान भरी के
मेरी खाहिश भी पूरी कर दी
उस मासूम ने आज घोंसले मे बैठे बैठे ऩहीँ
बाहर आ के अपनी माँ के साथ भोजन किया..


एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

अलगाव

''विभूति'' पीड़ित महिलाओं की सहायक संस्था है.
इसकी सलाहकार होने से कई जिंदगियाँ रोज़ जीती हूँ.
दो कवितायें वहीं से उपजी हैं-एक के बाद एक दे रहीं हूँ.

अलगाव
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.

सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.

बुलंदियां छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.

प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.

स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.

अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.

भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.

बेतुकी बातों का मुद्दा बना
निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोटें पहुँचाते रहे हम.

असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.

वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.

मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.

दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम..


बिखराव


अक्सर
मेरी हथेली पकड़
अपनी हथेली फैला
लकीरों को मिलाते--क्यों मुस्कराये थे....

दिमाग़, दिल, उम्र
सब लकीरें तो मिलती हैं
बिल्कुल मेरी लकीरों से
संयोग की बात कह-- क्यों शर्माये थे....

छत्तीस के छत्तीस गुण मिलते हैं
जन्म कुण्डलियाँ मिला
बड़े तार्किक ढंग में
उछल कर खुशी से--क्यों चिल्लाये थे.....

ग्रह मिले, लकीरें मिलीं
दिल भी मिल जाएँगे
भाग्य के द्वार खुल जाएँगे
स्वयं ही प्रसन्न हो तुम--क्यों सकुचाये थे....

मेरी खामोशी की उपेक्षा
दिल की अवज्ञा कर
पुरखों का इतिहास दुहरा
मेरी सोच को प्रभावित कर--क्यों गर्वाये थे....

दादी -नानी की निभी शादियाँ
ग्रहों की महत्ता, परम्पराएँ
प्रेम-विवाह से टूटे परिवार
उँगलियों पर गिना तुम--क्यों तन्नाये थे.....

सामाजिक मर्यादा
खानदानी संस्कारों में बंधी
स्वीकृति की मोहर लगा
घबराई सी मैं, तुम--क्यों हिचकिचाये थे....

लकीरें मिलीं, ग्रह भी मिलें
दिल न मिल सकें
मैं औ' तुम--हम न हुए
प्रश्न मेरे पर तुम-- क्यों तमतमाये थे....

दिल, लकीरों, ग्रहों से परे हैं
जब ये मिलते हैं
तो तक़दीर भी बदल जाती है
ऐसा सुन, तुम--क्यों बौखलाये थे.....

तद़बीर-तक़दीर बदलना चाहती है
ग्रहों, लकीरों से ऊपर
सोचना चाहती है
स्वीकार न कर तुम--क्यों हकलाये थे.....


भ्रम

भ्रम
शंकर को ढूंढने चले थे
हनुमान मिल गए;
क्या-क्या बदल के रूप- अनजान मिल गए.

एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते- इन्सान मिल गए.

माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते- शैतान मिल गए.

अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा;
दूर दिल में हँसते हुए- नादान मिल गए.

तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को;
जब सिक्के लिए हाथ में- बेईमान मिल गए.

कुछ रिसते झोंपड़ों में
जब झाँक कर देखा;
मानुषी भेस में स्वयं- भगवान मिल गए.

अपने को समझतें हैं
जो ईश्वर से बड़कर;
संसार को भी कैसे-कैसे- विद्वान् मिल गए.

किस पर करे विश्वास
आशंकित सी सुधा;
देवता के रूप में जब- हैवान मिल गए.

क्या हुआ?

Published by admin at 9:54 pm under क्या पाया.......

क्या हुआ?

रौशनी की धरती पर
चलते हुए
अंधेरों से
पिघलने लगी
और
दर्द की बस्तियों
से दोस्ती कर
आँचल कागज़ के फूलों
से भरने लगी.

नफरत भरे दिलों
के अंगारों की
जलन से
बचने लगी
और
वर्षों से भरे
दिल के छालों को
न छेड़ दे कोई,
उन्हें
संजोने लगी.

समय के
थपेड़ों ने
सर
झुका दिया
और
लोगों ने
सोचा कि
प्रार्थना,
उपासना
करने लगी.
सुधा ओम ढींगरा

अद्भुत कृति हूँ मैं

कुम्हार की
अद्भुत कृति हूँ मैं,
उसी माटी से
उसने मुझे घड़ा है,
जिस माटी में एक दिन
सब को मिट जाना है |


नन्हें से दीप का आकार दे
आँच में तपा कर
तैयार किया है मुझे
अँधेरे को भगाने |


फिर छोड़ दिया
भरे पूरे संसार में
जलने औ' जग रौशन करने |


हूँ तो नन्हा दीया
हर दीपावली पर जलता हूँ |
निस्वार्थ, त्याग, बलिदान
का पाठ पढ़ाता हूँ |
संसार में रौशनी बांटता
मिट जाता हूँ |

सुबह
मेरे आकार को
धो- पौंछ कर
सम्भाल लिया जाता है,
अगले साल जलने के लिए |
शायद यही मेरी नियति है |,,


शाम ढले

Published by admin under रचना



शाम ढले
प्रतीक्षा है
उस
पुरवाई की
जो
बहती आई थी
दूर दराज़ से कहीं |

लाई थी
खुशबुएँ
ढेरों फूलों की
महका गई थी
घर, आंगन, द्वार |

बही नहीं
कई दिनों से
दिशा दोष से घिर गई या
पथ परिवर्तन कर लिया |


प्रतीक्षा है
कब दोषमुक्त हो
बह निकले मेरे
गाँव की ओर
महका जाए
एक बार फिर
घर, आंगन, द्वार |


ख़याल

ख़याल
तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.

समय की धूल को

जब झाड़ा तो,
दर्द की
ऐसी टीस उठी
और
एक आँसू
भोर तक आँख धोता रहा.

न ढलका,

न लुढ़का,
मगर जाने क्यों
दिल इन मोतियों की
माला पिरोता रहा.

तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.

उपवन खिल उठा
जब बहार आई,
बाग़वान बस
मेरे लिए कांटे
बोता रहा.

घायल रूह

और
छलनी जिस्म लिए
उम्र भर अस्तित्व,
घुट-घुट कर रोता रहा.


मिलन

मिलन

शोख रंगों में
नये -खिले फूलों ने
धरती को फुलकारी ओढ़ा
फूलों की रंगोली बना
बसंत उत्सव के
स्वागत की
तैयारी कर ली.
ऋतुराज ने भी
मुस्करा कर
बसंत ऋतु को
बांहों में भर लिया
पूरे बरस की विरह
के बाद
मिलन था ना .


सुधा ओम ढींगरा


यह वादा करो

यह वादा करो
कभी ना उदास होंगे;
सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे.


प्रसन्नता के क्षणों को
एकांत से ना सजाना;
हम ना सही, कुछ लोग खास होंगे.


दुःख में स्वयं को
कभी अकेला ना समझना;
दिल के तेरे हम पास-आस होंगे.


देखना कभी ना
नज़रों को उठा कर;
कुछ अश्रु, कुछ प्रश्नों के वास होंगे.


तन्हाइयों के जंगल में
ना तन्हा घूमना;
कुछ टूटे फूटे शब्द मेरे तेरे पास होंगे.


सुधा ओम ढींगरा


यह सुबह की धूप


चाँदी रंग में रंगी हुई यह सुबह की धूप;
जीवन में उमंग जगाए यह सुबह की धूप!

गर्मी में लागे इसका ऐसा रूप निराला;
पसीने से सराबोर करे यह सुबह कि धूप!

साँस ना आये जी घबराए हर पल जाने कैसा;
फूल पत्तियाँ सब कुम्लाए यह सुबह की धूप!

सब को यह परेशान करे क्या पशु क्या पक्षी;
पर फसलों को महकाए यह सुबह की धूप!

गर्मी में सब दूर भागते सर्दी में पास बुलाते;
क्या-क्या रूप दिखाए यह सुबह की धूप!

इसके आँचल में जो बैठे माँ सा प्यार पाए;
ठिठुरन सब की दूर भगाए यह सुबह की धूप!

कभी गर्मी ,
कभी सर्दी, पतझड़ औ' मधुमास;
क्या-क्या रंग बदले है यह सुबह की धूप!

न कोई इसका दुश्मन जग में न कोई दोस्त;
सब पर अपना प्यार लुटाए यह सुबह की धूप!


सुधा ओम ढींगरा


क्या पाया…….

क्या पाया.......

खुशियाँ ढूंढने चले
ग़म राह में गड़े थे.
ग़मों को चुन कर हटाया
दर्द साथ ही खड़े थे.
दर्द से रिश्ता जोड़ा
आंसू झर-झर झड़े थे.
आंसुओं को जब समेटा
दिन जीवन के कम पड़े थे.

डॉ. सुधा ओम ढींगरा