अलगाव
''विभूति'' पीड़ित महिलाओं की सहायक संस्था है.
इसकी सलाहकार होने से कई जिंदगियाँ रोज़ जीती हूँ.
दो कवितायें वहीं से उपजी हैं-एक के बाद एक दे रहीं हूँ.
अलगाव
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.
बुलंदियां छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.
प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.
स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.
अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.
भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.
बेतुकी बातों का मुद्दा बना
निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोटें पहुँचाते रहे हम.
असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.
वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.
मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.
दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम..
अक्सरइसकी सलाहकार होने से कई जिंदगियाँ रोज़ जीती हूँ.
दो कवितायें वहीं से उपजी हैं-एक के बाद एक दे रहीं हूँ.
अलगाव
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.
बुलंदियां छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.
प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.
स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.
अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.
भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.
बेतुकी बातों का मुद्दा बना
निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोटें पहुँचाते रहे हम.
असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.
वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.
मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.
दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम..
बिखराव
मेरी हथेली पकड़
अपनी हथेली फैला
लकीरों को मिलाते--क्यों मुस्कराये थे....
दिमाग़, दिल, उम्र
सब लकीरें तो मिलती हैं
बिल्कुल मेरी लकीरों से
संयोग की बात कह-- क्यों शर्माये थे....
छत्तीस के छत्तीस गुण मिलते हैं
जन्म कुण्डलियाँ मिला
बड़े तार्किक ढंग में
उछल कर खुशी से--क्यों चिल्लाये थे.....
ग्रह मिले, लकीरें मिलीं
दिल भी मिल जाएँगे
भाग्य के द्वार खुल जाएँगे
स्वयं ही प्रसन्न हो तुम--क्यों सकुचाये थे....
मेरी खामोशी की उपेक्षा
दिल की अवज्ञा कर
पुरखों का इतिहास दुहरा
मेरी सोच को प्रभावित कर--क्यों गर्वाये थे....
दादी -नानी की निभी शादियाँ
ग्रहों की महत्ता, परम्पराएँ
प्रेम-विवाह से टूटे परिवार
उँगलियों पर गिना तुम--क्यों तन्नाये थे.....
सामाजिक मर्यादा
खानदानी संस्कारों में बंधी
स्वीकृति की मोहर लगा
घबराई सी मैं, तुम--क्यों हिचकिचाये थे....
लकीरें मिलीं, ग्रह भी मिलें
दिल न मिल सकें
मैं औ' तुम--हम न हुए
प्रश्न मेरे पर तुम-- क्यों तमतमाये थे....
दिल, लकीरों, ग्रहों से परे हैं
जब ये मिलते हैं
तो तक़दीर भी बदल जाती है
ऐसा सुन, तुम--क्यों बौखलाये थे.....
तद़बीर-तक़दीर बदलना चाहती है
ग्रहों, लकीरों से ऊपर
सोचना चाहती है
स्वीकार न कर तुम--क्यों हकलाये थे.....
भ्रम
भ्रम
शंकर को ढूंढने चले थे
हनुमान मिल गए;
क्या-क्या बदल के रूप- अनजान मिल गए.
एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते- इन्सान मिल गए.
माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते- शैतान मिल गए.
अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा;
दूर दिल में हँसते हुए- नादान मिल गए.
तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को;
जब सिक्के लिए हाथ में- बेईमान मिल गए.
कुछ रिसते झोंपड़ों में
जब झाँक कर देखा;
मानुषी भेस में स्वयं- भगवान मिल गए.
अपने को समझतें हैं
जो ईश्वर से बड़कर;
संसार को भी कैसे-कैसे- विद्वान् मिल गए.
किस पर करे विश्वास
आशंकित सी सुधा;
देवता के रूप में जब- हैवान मिल गए.
शंकर को ढूंढने चले थे
हनुमान मिल गए;
क्या-क्या बदल के रूप- अनजान मिल गए.
एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते- इन्सान मिल गए.
माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते- शैतान मिल गए.
अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा;
दूर दिल में हँसते हुए- नादान मिल गए.
तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को;
जब सिक्के लिए हाथ में- बेईमान मिल गए.
कुछ रिसते झोंपड़ों में
जब झाँक कर देखा;
मानुषी भेस में स्वयं- भगवान मिल गए.
अपने को समझतें हैं
जो ईश्वर से बड़कर;
संसार को भी कैसे-कैसे- विद्वान् मिल गए.
किस पर करे विश्वास
आशंकित सी सुधा;
देवता के रूप में जब- हैवान मिल गए.
क्या हुआ?
क्या हुआ?
रौशनी की धरती पर
चलते हुए
अंधेरों से
पिघलने लगी
और
दर्द की बस्तियों
से दोस्ती कर
आँचल कागज़ के फूलों
से भरने लगी.
नफरत भरे दिलों
के अंगारों की
जलन से
बचने लगी
और
वर्षों से भरे
दिल के छालों को
न छेड़ दे कोई,
उन्हें
संजोने लगी.
समय के
थपेड़ों ने
सर
झुका दिया
और
लोगों ने
सोचा कि
प्रार्थना,
उपासना
करने लगी.
सुधा ओम ढींगरारौशनी की धरती पर
चलते हुए
अंधेरों से
पिघलने लगी
और
दर्द की बस्तियों
से दोस्ती कर
आँचल कागज़ के फूलों
से भरने लगी.
नफरत भरे दिलों
के अंगारों की
जलन से
बचने लगी
और
वर्षों से भरे
दिल के छालों को
न छेड़ दे कोई,
उन्हें
संजोने लगी.
समय के
थपेड़ों ने
सर
झुका दिया
और
लोगों ने
सोचा कि
प्रार्थना,
उपासना
करने लगी.
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