अद्भुत कृति हूँ मैं,
उसी माटी से
उसने मुझे घड़ा है,
जिस माटी में एक दिन
सब को मिट जाना है |
नन्हें से दीप का आकार दे
आँच में तपा कर
तैयार किया है मुझे
अँधेरे को भगाने |
फिर छोड़ दिया
भरे पूरे संसार में
जलने औ' जग रौशन करने |
हूँ तो नन्हा दीया
हर दीपावली पर जलता हूँ |
निस्वार्थ, त्याग, बलिदान
का पाठ पढ़ाता हूँ |
संसार में रौशनी बांटता
मिट जाता हूँ |
सुबह
मेरे आकार को
धो- पौंछ कर
सम्भाल लिया जाता है,
अगले साल जलने के लिए |
शायद यही मेरी नियति है |,,
शाम ढले
शाम ढले
प्रतीक्षा है
उस
पुरवाई की
जो
बहती आई थी
दूर दराज़ से कहीं |
लाई थी
खुशबुएँ
ढेरों फूलों की
महका गई थी
घर, आंगन, द्वार |
बही नहीं
कई दिनों से
दिशा दोष से घिर गई या
पथ परिवर्तन कर लिया |
प्रतीक्षा है
कब दोषमुक्त हो
बह निकले मेरे
गाँव की ओर
महका जाए
एक बार फिर
ख़याल
ख़याल
तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.
समय की धूल को
जब झाड़ा तो,
दर्द की
ऐसी टीस उठी
और
एक आँसू
भोर तक आँख धोता रहा.
न ढलका,
न लुढ़का,
मगर जाने क्यों
दिल इन मोतियों की
माला पिरोता रहा.
तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.
उपवन खिल उठा
जब बहार आई,
बाग़वान बस
मेरे लिए कांटे
बोता रहा.
घायल रूह
और
छलनी जिस्म लिए
उम्र भर अस्तित्व,
घुट-घुट कर रोता रहा.तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.
समय की धूल को
जब झाड़ा तो,
दर्द की
ऐसी टीस उठी
और
एक आँसू
भोर तक आँख धोता रहा.
न ढलका,
न लुढ़का,
मगर जाने क्यों
दिल इन मोतियों की
माला पिरोता रहा.
तेरे ख़यालों से
यह महसूस होता रहा
जैसे
व्यक्तित्व मेरा
भीतर से कुछ खोता रहा.
उपवन खिल उठा
जब बहार आई,
बाग़वान बस
मेरे लिए कांटे
बोता रहा.
घायल रूह
और
छलनी जिस्म लिए
उम्र भर अस्तित्व,
मिलन
मिलन
शोख रंगों में
नये -खिले फूलों ने
धरती को फुलकारी ओढ़ा
फूलों की रंगोली बना
बसंत उत्सव के
स्वागत की
तैयारी कर ली.
ऋतुराज ने भी
मुस्करा कर
बसंत ऋतु को
बांहों में भर लिया
पूरे बरस की विरह
के बाद
मिलन था ना .
सुधा ओम ढींगरा
चाँदी रंग में रंगी हुई यह सुबह की धूप;
जीवन में उमंग जगाए यह सुबह की धूप!
गर्मी में लागे इसका ऐसा रूप निराला;
पसीने से सराबोर करे यह सुबह कि धूप!
साँस ना आये जी घबराए हर पल जाने कैसा;
फूल पत्तियाँ सब कुम्लाए यह सुबह की धूप!
सब को यह परेशान करे क्या पशु क्या पक्षी;
पर फसलों को महकाए यह सुबह की धूप!
गर्मी में सब दूर भागते सर्दी में पास बुलाते;
क्या-क्या रूप दिखाए यह सुबह की धूप!
इसके आँचल में जो बैठे माँ सा प्यार पाए;
ठिठुरन सब की दूर भगाए यह सुबह की धूप!
कभी गर्मी ,कभी सर्दी, पतझड़ औ' मधुमास;
क्या-क्या रंग बदले है यह सुबह की धूप!
न कोई इसका दुश्मन जग में न कोई दोस्त;
सब पर अपना प्यार लुटाए यह सुबह की धूप!
सुधा ओम ढींगरा
शोख रंगों में
नये -खिले फूलों ने
धरती को फुलकारी ओढ़ा
फूलों की रंगोली बना
बसंत उत्सव के
स्वागत की
तैयारी कर ली.
ऋतुराज ने भी
मुस्करा कर
बसंत ऋतु को
बांहों में भर लिया
पूरे बरस की विरह
के बाद
मिलन था ना .
सुधा ओम ढींगरा
यह वादा करो
यह वादा करो
कभी ना उदास होंगे;
सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे.
प्रसन्नता के क्षणों को
एकांत से ना सजाना;
हम ना सही, कुछ लोग खास होंगे.
दुःख में स्वयं को
कभी अकेला ना समझना;
दिल के तेरे हम पास-आस होंगे.
देखना कभी ना
नज़रों को उठा कर;
कुछ अश्रु, कुछ प्रश्नों के वास होंगे.
तन्हाइयों के जंगल में
ना तन्हा घूमना;
कुछ टूटे फूटे शब्द मेरे तेरे पास होंगे.
सुधा ओम ढींगराकभी ना उदास होंगे;
सृष्टि के कष्ट चाहे सब साथ होंगे.
प्रसन्नता के क्षणों को
एकांत से ना सजाना;
हम ना सही, कुछ लोग खास होंगे.
दुःख में स्वयं को
कभी अकेला ना समझना;
दिल के तेरे हम पास-आस होंगे.
देखना कभी ना
नज़रों को उठा कर;
कुछ अश्रु, कुछ प्रश्नों के वास होंगे.
तन्हाइयों के जंगल में
ना तन्हा घूमना;
कुछ टूटे फूटे शब्द मेरे तेरे पास होंगे.
यह सुबह की धूप
चाँदी रंग में रंगी हुई यह सुबह की धूप;
जीवन में उमंग जगाए यह सुबह की धूप!
गर्मी में लागे इसका ऐसा रूप निराला;
पसीने से सराबोर करे यह सुबह कि धूप!
साँस ना आये जी घबराए हर पल जाने कैसा;
फूल पत्तियाँ सब कुम्लाए यह सुबह की धूप!
सब को यह परेशान करे क्या पशु क्या पक्षी;
पर फसलों को महकाए यह सुबह की धूप!
गर्मी में सब दूर भागते सर्दी में पास बुलाते;
क्या-क्या रूप दिखाए यह सुबह की धूप!
इसके आँचल में जो बैठे माँ सा प्यार पाए;
ठिठुरन सब की दूर भगाए यह सुबह की धूप!
कभी गर्मी ,कभी सर्दी, पतझड़ औ' मधुमास;
क्या-क्या रंग बदले है यह सुबह की धूप!
न कोई इसका दुश्मन जग में न कोई दोस्त;
सब पर अपना प्यार लुटाए यह सुबह की धूप!
क्या पाया…….
क्या पाया.......
खुशियाँ ढूंढने चले
ग़म राह में गड़े थे.
ग़मों को चुन कर हटाया
दर्द साथ ही खड़े थे.
दर्द से रिश्ता जोड़ा
आंसू झर-झर झड़े थे.
आंसुओं को जब समेटा
दिन जीवन के कम पड़े थे.
डॉ. सुधा ओम ढींगराखुशियाँ ढूंढने चले
ग़म राह में गड़े थे.
ग़मों को चुन कर हटाया
दर्द साथ ही खड़े थे.
दर्द से रिश्ता जोड़ा
आंसू झर-झर झड़े थे.
आंसुओं को जब समेटा
दिन जीवन के कम पड़े थे.
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