Sunday, December 18, 2011

कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं / ज़फ़र गोरखपुरी

कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
दश्त में ख़ुशबू की बौछारें कहाँ से आ गईं

कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
मेरे बिस्तर में ये तलवारें कहाँ से आ गईं

साथ है, मिलना अगर चाहूँ तो मिलता भी नहीं
एक घर में इतनी दीवारें कहाँ से आ गईं

शायद अब तक मुझमें कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं

ख्वाब शायद फिर हुआ आंखों में कोई संगसार[1]
ज़ेरे-मिज़गां [2] ख़ून की धारें कहाँ से आ गईं

रख दिया किसने मेरे शाने पे अपना गर्म हाथ
मुझ शिकस्ता-पा [3] में रफ्त़ारें कहाँ से आ गईं

शब्दार्थ:

  1. पत्थर मारकर मार डालना
  2. पलकों के नीचे
  3. हारा हुआ

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