Tuesday, March 1, 2011

श्री भगवान बोले-

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दो क्षणद के इस जीवन में, क्या 'खोना' क्या 'पाना' है,
माटी से तू बना है मानव, फिर इसी में मिल जाना है!

धन-दौलत के मोह में आकर, मानवता को भूलजाना है,
शाम सवेरे दृष्टि में अब तो, यही किस्सा पुराना है!

लालस की नैया को जान ले, एक दिन डूब ही जाना है,
मानवता का जो करे है आदर, वही मनुष्य सयाना है!

वास्तु-मोह में फसे मनष्य को ये, फिर से याद दिलाना है,
जीवन की ये परीक्षा पूर्ण कर, इश्वर के घर जाना है!

धन दौलत सब वास्तु हैं इनको, यहीं छोढ़ कर जाना है,
बस कर्मों के ही चिंता कर तू, के इन्ही को साथ ले-जाना है!


हाथो में चावल के दाने लिए
जब पहुँचा घोंसले के पास
आहा! क्या द्रश्य था वो!!
कुछ दीनो. से जिसकी आवाज़ मैं
रोज़ सुना करता था
आज वो चिडिया का बच्चा
घोंसले में से झाँक के बाहर
मानो अपना मासूम सा चेहरा मुझे दिखा रहा हो
उसकी मासूम सी आँखों से
मुझ को टुकूर-टुकूर वो देख रहा था
और जैसे मेरे हाथों में चावल के दाने देख
मुझसे मानो कुछ कह रहा हो
अर्रे! आप आ गये ? रोज़ की तरह
मेरा भोजन लेकर!!
मैने भी फिर मन ही मन कहा
हाँ मासूम ! चल आ और जल्दी से अपना भोजन कर ले
क्यूंकी अब तुम बड़े हो गये हो
देखो तुम्हारी माँ बाहर बैठी है
आज वो तुम्हे भोजन देने घोंसले मे नहीं आएँगी
आज खुद बाहर आके ही भोजन तुम्हे लेना होगा
इन प्यारी सी बातों को सोचते हुए अचानक ही
उसकी माँ ने उसे पुकारा सामने से
वो अपनी माँ की आवाज़ सुन के
जैसे चौकन्ना हो गया!
मेरी पल्के जैसे ही झपकी तो उस मासूम ने
अपने पंख फैलाए
उसकी माँ ने भी उसका हॉंसला बढ़ाया
पर वो नाकाम रहा!
डरा हुआ , सहमा हुआ ! बेचारा
मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये
के माँ ने मुझे भी ऐसे चलना सिखाया होगा
पर उसने हार ना मानी माँ ने फिर आवाज़ लगाई
ईस बार कोशिश कामयाब रही
पँखो को हवाओं मे फैला कर
ऐसी उड़ान भरी !
जैसे वो मासूम कह रहा हो
की माँ देखो मैने कर दिखाया
मैने पूरा जग जीत लिया!
माँ के पास जल्दी से जाके बैठ गया
नन्हा मासूम सा
और आज देखा की उस मासूम ने
सच मे ऐसी उड़ान भरी के
मेरी खाहिश भी पूरी कर दी
उस मासूम ने आज घोंसले मे बैठे बैठे ऩहीँ
बाहर आ के अपनी माँ के साथ भोजन किया..


एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

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