Monday, June 17, 2013

वैज्ञानिक पूजा पद्धति --
हमारी पूजा विधि में जो भी क्रिया कलाप है वे भगवान् को प्रसन्न करने के लिए कम और हमारी भलाई के लिए अधिक है.इन्हें रोज़ नियमित रूप से करने से हमारे स्वास्थ्य , वातावरण और संबंधों पर सकारात्मक असर होते है .
- धुप में आरोग्यदायक जड़ी बूटियाँ होती है. इसका धूंआ वातावरण को शुद्ध करता है. नकारात्मकता को घटाता है.
- दीप जो सरसों , तिल या घी से जलाया जाता है हवा को शुद्ध करता है. इस पर किया जाने वाला त्राटक शरीर के साथ आध्यात्मिक उन्नति में सहायक है.
- नैवेद्य - उच्च और शुद्ध भावना के साथ बनाया जाने वाला भोजन शारीरिक , मानसिक और बौद्धिक विकास में सहायक होता है.
- प्रदक्षिणा - गोल घुमने से प्राण शक्ति का विकास होता है.
- नमस्कार - दोनों हाथ जोड़ने से सुषुम्ना नाडी कार्यरत होती है. सर धरती से टिकाने से धरती की शक्ति प्राप्त होती है. साष्टांग प्रणाम में सम्पूर्ण शरीर धरती के संपर्क में आता है.
- पूजा में चढ़ाए जाने वाले फूल और पत्तियाँ उसके औषधीय महत्त्व की याद दिलाते है.
- टिका - आज्ञा चक्र , विशुद्धि चक्र क्रियान्वित होता है. जिस पदार्थ का टिका लगाया जाए उसका असर स्वास्थ्य पर होता है जैसे कुमकुम , हल्दी , चन्दन या केसर .
- कलेवा - हाथ में बांधा जाने वाला यह धागा सभी अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों को सुचारू रूप से चलाता है. अगर बहनें हार्मोनल असंतुलन से परेशान है तो उलटे हाथ में धागा बांधे. लाभ होगा.
- घंटा नाद , शंख नाद - वातावरण में मौजूद हानिकारक कीटाणुओं और नकारात्मकता को नष्ट करता है.प्रणव ओमकार का नाद करता है.
- पूजा के पहले प्राणायाम करने का निर्देश है. स्तोत्र और मन्त्र के शब्दों में तरंगों की शक्ति है जो नाद ब्रम्ह या शब्द ब्रम्ह कहलाती है.
- अभिषेक करते हुए या तीर्थ जल लेते समय मंत्रोच्चार करने से पानी पर मन्त्रों की तरंग का अच्छा असर होता है. ऐसे मंत्रोच्चार से युक्त जल के सेवन से बीमारियाँ दूर होती है.
- मूर्ती पूजा - जिस प्रकार हम अपने प्रिय जन की तस्वीर रख कर उससे मन की सहक्ति से संवाद कर सकते है , वैसे ही हम अपने आराध्य की तस्वीर या मूर्ती को देख कर उस परम शक्ति से संपर्क साध सकते है. यह मन से मन का रिश्ता है. मूर्ती तो मन को उस स्थिति में ले जाने का माध्यम है.
- परम शक्ति ने मानव की रक्षा के लिए इतने सारे अवतार लिए है , जिससे हमारे पास इतने सारे देवी और देवता है. हमें हमारे कुल देवता या फिर गुरु द्वारा बताये गए देवता की पूजा और मन्त्र साधना करना चाहिए. घर के मंदिर में अनावश्यक मूर्तियाँ और सामान इकट्ठा ना करें. डर से तो हरगिज़ नहीं.

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श्री राम स्तुति (मूल पाठ एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणम्॥

भावार्थ : हे मन! कृपालु श्री रामचंद्र जी का भजन कर... वह संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं... उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं, तथा मुख, हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं...

कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील-नीरद सुन्दरम्।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥

भावार्थ : उनके सौंदर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन-नील-सजल मेघ समान सुंदर वर्ण (रंग) है, उनका पीताम्बर शरीर में मानो बिजली के समान चमक रहा है, तथा ऐसे पावन रूप जानकीपति श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूं...

भजु दीनबंधु दिनेश दानव, दैत्य-वंश-निकन्दनम्।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ-नंदनम्॥

भावार्थ : हे मन! दीनों के बंधु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्द-कन्द, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान, दशरथ-नन्दन श्री राम जी का भजन कर...

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर चाप धर, संग्रामजित खरदूषणम्॥

भावार्थ : जिनके मस्तक पर रत्नजटित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर सुंदर तिलक और प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर और दूषण को भी जीत लिया है...

इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष-मुनि-मन-रंजनम्।
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥

भावार्थ : जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं... तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वह श्री रघुनाथ जी मेरे हृदय-कमल में सदा निवास करें...

मनु जाहिं राचेहु मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो॥

भावार्थ : गौरी-पूजन में लीन जानकी (सीता जी) पर गौरी जी प्रसन्न हो जाती हैं और वर देते हुए कहती हैं - हे सीता! जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वह स्वभाव से ही सुंदर और सांवला वर (श्री रामचन्द्र) तुम्हें मिलेगा... वह दया के सागर और सुजान (सर्वज्ञ) हैं, तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं...

एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

भावार्थ : इस प्रकार गौरी जी का आशीर्वाद सुनकर जानकी जी सहित समस्त सखियां अत्यन्त हर्षित हो उठती हैं... तुलसीदास जी कहते हैं कि तब सीता जी माता भवानी को बार-बार पूजकर प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं...

सोरठा: जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥

भावार्थ : गौरी जी को अपने अनुकूल जानकर सीता जी को जो हर्ष हुआ, वह अवर्णनीय है... सुंदर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे...

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