Thursday, February 10, 2011

गीता की उपयोगी बातें ......................

भोजनके पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-ये पाँचों शुद्ध,पवित्र जलसे धो ले। फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंको

‘ पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहॄतमश्नामि प्रयतात्मन:॥’(गीता ९/२६)-यह श्लोक पढ़कर भगवान्‌ के अर्पण कर दे।

अर्पण के बाद दायें हाथमें जल लेकर गीता(४.../२४) यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान्‌ का नाम लेकर ही मुखमें डाले।प्रत्येक ग्रासको चबाते समय ‘ हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ इस मन्त्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले। ऐसा करनेसे भोजन भी भजन बन जाता है। जो सत्य-तत्त्व है, उसीको परमात्मा कहते हैं| जो सर्वथा सत्य है, जिसका कभी विनाश नहीं होता, ऐसे अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करना ही मनुष्य का ख़ास ध्येय, लक्ष्य है| उसको प्राप्त कर लिया तो मनुष्यजन्म सफल हो गया| अगर उसको प्राप्त नहीं किया तो तो मनुष्यजन्म सफल नहीं हुआ| यदि भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत्‌ न भी हो तो भी आप घबरायें नहीं। भगवान्‌ कहते हैं-‘निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है’। अतएव आप यही दृढ़ निश्चय कर लें कि हम तो एक भगवान्‌ की तरफ ही चलेंगे। यदि केवल भगवान्‌ की तरफ चलनेकी इस अभिलाषाको ही विचार-पूर्वक जाग्रत्‌ रखा जाय तो यह अभिलाषा अपने-आप उत्कट हो जायगी।भगवान् मेरे सिरपर हाथ रखकर कहते हैं-‘ बेटा ! आ जा ।’ ऐसे मेरेको बुला रहे हैं। भगवान् बुला रहे हैं-इसकी यह पहचान है कि मेरेको सुननेके लिये भगवान् की कथा मिल गयी। भगवान् की चर्चा मिल गयी। भगवत्सम्बन्धी पुस्तक मिल गयी। भगवान् का नाम देखनेमें आ गया। जिस नामको शंकर जपते हैं.नारदजी जपते हैं,संत-महात्मा जपते हैं। वह नाम मेरेको मिल गया।यह तो मेरा भाग्य ही खुल गया है।हम अलग-अलग काम किसलिये करते है? वह ‘लिये’-उद्देश्य हमारे अनेक हो जाते हैं,तब हम फँसते हैं।कभी हमारा उद्दॆश्य विद्या हो जाती है,कभी यश हो जाता है,कभी धन हो जाता है,कभी मान-बड़ाई और स्वास्थ्य उद्देश्य हो जाता है।कभी भगवत्प्राप्ति उद्देश्य हो जाता है।ऐसा होनेसे कोई-सा भी काम सिद्ध नहीं हो पाता-‘सब साधे सब जाय’।इसलिये हमारा भाव एक ही होना चाहिये कि हम सभी काम करेंगे और करेंगे प्रभुकी प्रीतिके लिये,उनकी प्रसन्नताके लिए।हम अलग-अलग काम किसलिये करते है? वह ‘लिये’-उद्देश्य हमारे अनेक हो जाते हैं,तब हम फँसते हैं।कभी हमारा उद्दॆश्य विद्या हो जाती है,कभी यश हो जाता है,कभी धन हो जाता है,कभी मान-बड़ाई और स्वास्थ्य उद्देश्य हो जाता है।कभी भगवत्प्राप्ति उद्देश्य हो जाता है।ऐसा होनेसे कोई-सा भी काम सिद्ध नहीं हो पाता-‘सब साधे सब जाय’।इसलिये हमारा भाव एक ही होना चाहिये कि हम सभी काम करेंगे और करेंगे प्रभुकी प्रीतिके लिये,उनकी प्रसन्नताके लिए।

वे परमात्मा हमारे हैं और हम परमात्माके हैं- इसमें दृढ़ता होनी चाहिये। जैसे छोटा बालक कहता है कि माँ मेरी है। उससे कोई पूछे कि माँ तेरी क्यों है,तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है। उसके मनमें यह शंका ही पैदा नहीं होती कि माँ मेरी क्यों है? माँ मेरी है, बस, इसमें उसको कोई संदेह नहीं होता। इसी तरह आप भी संदेह मत करो और यह दृढ़तासे मान लो कि भगवान्‌ मेरे हैं।ठाकुरजी के अर्पण करनेसे वस्तु पवित्र हो जाती है, महान्‌ पवित्र अर्थात्‌ भगवत्स्वरुप हो जाती है ! हम सब कुछ भगवान्‌ के अर्पण कर दें तो सब-का-सब प्रसाद हो जायगा। हम भोजन करें तो भगवान्‌ जा प्रसाद, कपड़ा पहनें तो ठाकुरजी का प्रसाद, माताएँ-बहनें गहना पहनें तो ठाकुरजी का प्रसाद-सब कुछ ठाकुरजी का प्रसाद अर्थात्‌ भगवतस्वरुप हो जायगा !जो माता-पिताकी सेवा केवल अपना कर्तव्य समझकर करते हैं,उनका माता-पितासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, उनका माता-पिताके चरणोंमें प्रेम नहीं होता। परन्तु जो अपने शरीरको माता-पिताका ही मानकर आदर और प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करते हैं,उनका माता-पितामें प्रेम हो जाता है। जैसे मनुष्य भोजन करनेको, अपना कर्तव्य नहीं मानते, प्रत्युत प्राणोंका आधार मानते हैं,ऐसे ही माता-पिताकी सेवाको प्राणोंका आधार मानना चाहिये।

भाईयों और बहनों ध्यान दे के आप सुनो, और सच्चे हृदय से भगवान्‌में लगो, भगवान्‌का नाम लो, हृदय में, कुटिल कर्म नहीं, कुटिल स्वभाव नहीं हमारा, किसी को धोखा नहीं देना, किसी को विश्वासघात नहीं करना, किसी का कुछ भी अपकार नहीं करना है, भगवान में लगना है सच्चे हृदय से, सच्चे हृदय से भगवान्‌में लग जायें, जीवन बदल जाता है,जो संसार से कुछ नहीं चाहता, प्रत्युत दूसरोंकी सेवा करता है, उनको सुख देता है, उसके लिये संसार परमात्मा का स्वरुप है और जो संसार से सुख लेना चाहता है, उसके लिये संसार दु:खों का घर है। भक्तियोग की दृष्टि से संसार भगवान्‌ का स्वरुप है और ज्ञानयोग की दॄष्टि से संसार दु:खरुप है।, जैसे माँ बालककी चिन्ता करें,न करें इससे बालक को क्या मतलब ! वह आप ही चिंता करती है बालककी;क्योंकि बालक उसका अपना है। ऐसे ही भगवान्‌ हमारी माँ है बस, वह हमारी माँ है और हमें न कुछ करना है,न जानना है;किन्तु हरदम मस्त रहना है।माँ की गोदीमें खेलता रहे,हँसता रहे,खुश होता रहे।क्यों खुश होता रहे कि इससे माँ खुश होती है,राजी होती है।माँकी राजीके लिये ही हम रहते हैं,खेलते हैं और काम भी माँकी राजीके लिए ही करते हैं।किसी से भी कोई आशा नहीं रखनी है।स्त्री रोटी बनाकर दें तो खा लें, पर वह रोजाना रोटी बनाकर दे-यह आशा भी न रखें। आशा ही महान्‌ दु:ख देनेवाली है।

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