Thursday, February 10, 2011

गीता की उपयोगी बातें .........

किसी तरह से भगवान से सम्बन्ध जोड़ लो| नाम-जप करो तो ज़बान से, पुस्तक पढो तो नेत्रों से, चिंतन करो तो मन से भगवान के साथ सम्बन्ध जुड़ गया|गीता से अपनी प्यास बुझा सकते हैं, पर उसको पूरा ग्रहण नहीं कर सकते; क्योंकि गीता अनंत है| गीता अर्जुन को भी दुबारा सुनने को नहीं मिली, पर हमें प्रतिदिन सुनने-पढने को मिल रही है! यह भगवान की हमपर कितनी कृपा है .भगवान का जो प्रेम है वह कभी कम नहीं होता, सदा रहनेवाला है| वह प्रेम बढ़ता ही जाता है सब कामनाएँ आज तक किसी की पूरी नहीं हुई और हो सकती भी नहीं| अगर कामना पैदा तो हो जाए, पर पूरी न हो तो बड़ा दुःख होता है! परन्तु मनुष्य की दशा यह है की वह कामना की अपूर्ति से दुःखी भी होता रहता है और कामना भी करता रहता है! परिणाम यह होता है कि न तो सब कामनाएँ पूरी होती है और न दुःख ही मिटता है! अगर किसी को दुःख से बचना हो तो इसका उपाय है - कामना का त्याग.भोग और संग्रह की इच्छा होती है कि सुख भोग लूँ, संग्रह कर लूँ| इसी कारण 'एक परमात्मा कि तरफ ही चलना है' यह निश्चय नहीं होता| इस निश्चय में जितनी शक्ति है, उतनी किसी साधन में नहीं है| नाम-जप, कीर्तन, सत्संग, स्वद्याय, तप, तीर्थ, व्रत आदि साधन बड़े श्रेष्ट है .केवल भगवान् का आश्रय ले ले तो सदाके लिये मौज हो जाये! स्वप्नमें भी किसीकी किञ्चिन्मात्र भी गरज न रहे! जब किसी-न-किसी का आश्रय लेना ही पड़ता है तो सर्वोपरिका ही आश्रय लें छोटेका आश्रय क्या लें?अत: सबसे पहले ही यह मान लें कि भगवान् हमारे और हम भगवान् के हैं..


अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ मानस,अरण्यकाण्ड ११/११).


इस तरह दृढतासे भगवान् में अपनापन हो जाय तो फिर परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं लगेगी । जितना निश्चिन्त हो सके, नि:शोक हो सके, नि:शंक हो सके, संकल्प-विकल्पसे रहित हो सके उतनी ही श्रेष्ठ शरणागति है। इसलिये कह दो कि अपने पर कुछ भार ही नहीं है। अपनेपर कोई बोझा ही नहीं है, अपनेपर कोई जिम्मेदारी ही नहीं है। अब तो सर्वथा हम भगवान्‌ के हो गये. संसारमें कोई महात्मा है, कोई दुरात्मा है; कोई सज्जन है, कोई दुष्ट है; कोई विद्वान्‌ है कोई मूर्ख है- यह सब तो बाहरी दृष्टिसे है, पर तत्वसे देखें तो सब-के-सब एक भगवान्‌ ही हैं। एक भगवान्‌ ही अनेक रुपों से बने हुए हैं। जानकार आदमी उनको पहचान लेता है, दूसरा नहीं पहचान सकता।केवल भाव बदल दो कि मैं तो सेवा करनेके लिये हूँ। रोजाना सुबह और शाम बड़ोंके चरणोंमें प्रणाम करो। काम-धन्धा खुद करो और सुख-आराम दूसरोंको दो। निन्दा, तिरस्कार, उलाहना, अपमान अगर मिलते हों तो खुद ले लो और मान-बड़ाई, आदर-सत्कार दूसरोंको दो। फिर आप देखो, कितना आनन्द होता है! कौटुम्बिक स्नेह भी हो जायगा और भजन भी हो जायगा।भजनका लाभ भी दीखेगा।मुक्ति इच्छा के त्याग से होती है, वसतु के त्याग से नहीं,लोगों की सांसारिक भोग और संग्रह में ज्यों-ज्यों आसक्ति बढती है, त्यों-ही-त्यों समाज में अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाज में पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते है ,सर्वथा निर्दोष जीवन तो सबका हो सकता है, पर सर्वथा दोषी जीवन कभी किसीका हो ही नहीं सकता; क्योंकि भागवान का अंश होने से जीव स्वयं निर्दोष है| दोष आगन्तुक हैं और नाशवान के संग से आते हैं| प्रत्येक मनुष्य को भगवान की तरफ चलना ही पड़ेगा, चाहे आज चले या अनेक जन्मों के बाद तो फिर देरी क्यों?कोई पूछे की दुनिया कैसी है? तो इसका उत्तर है - आप जैसी! भले आदमी के लिए दुनिया भली है, बुरे आदमी के लिए बुरी| भगवान को याद करना ही उनकी सेवा करना है| केवल याद करना है, पत्र-पुष्प-फल की भी ज़रुरत नहीं है! द्रौपदी ने केवल याद किया था| भगवान् आपको निरंतर बुला रहे है, इसीलिए आप कहीं टिक नहीं सकते| आप जिस वस्तु, परिस्थिती, अवस्था, आदि को पकड़ते हैं, वह छूट जाती है|भगवान जीव को अपना दास नहीं बनाना चाहते, प्रत्युत दोस्त बनाना चाहते है! अपना पूजनीय बनाना चाहते है! भगवान बड़े से बड़े की भी आखिरी हद्द हैं और छोटे-से-छोटे की भी आखिरी हद हैं!

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