काल में पितृमरण को सुनकर भगवान् राम ने चित्रकूट स्थित मंदाकिनी में जाकर
पिण्डदान तथा जलदान किया था। महाभारत के हरिवंश में भीष्म पितामह एवं
युधिष्ठिर संवाद का वर्णन है जिसमें युधिष्ठिर पूछते हैं कि पितामह मृत्यु
के पश्चात् जीवात्मा स्वर्ग में जाता है अथवा नरक में। सभी प्राणी अपने
नियत कर्मों का फल भोगते है तब भला इस श्राद्ध का क्या प्रयोजन? इसका
उत्तर देते हुए भीष्म कहते है राजन् जिन्हे पुष्टि प्राप्त करनी हो उन्हे
श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितामह भीष्म ने कहा कि एक बार मैं अपने पिता
शान्तनु के निमित्त श्राद्ध कर रहा था। उस समय जैसे ही मैं कुश पर पिण्ड
रखने चला मेरे पिता का हाथ प्रत्यक्ष आ गया और ध्वनि हुई कि मेरे हाथ पर
पिण्ड रख दो। मैं अपने पिता का हाथ एवं वाणी भी पहचान गया किंतु
द्विविधाग्रस्त हो गया कि पिण्ड कहां दें। अंत में मैं अनेक ऊहापोह के
पश्चात् पिण्ड को हाथ पर न रखकर शास्त्रानुसार कुश पर ही रखा। मेरी इस
शास्त्रनिष्ठा को देखकर पिता अत्यंत प्रसन्न होकर मधुर वाणी में बोले कि
हे भरतश्रेष्ठ! तुम निष्पाप हो तुम्हे मैं इच्छा-मृत्यु का वरदान देता
हूं।...गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था अर्थात उनकी इच्छा के बिना यमराज भी उनके प्राण हरने में असमर्थ थे। वे बड़े पराक्रमी तथा भगवान परशुराम के शिष्य थे। भीष्म पिछले जन्म में कौन थे तथा उन्होंने ऐसा कौन सा पाप किया जिनके कारण उन्हें मृत्यु लोक में रहना पड़ा? इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है।
उसके अनुसार-गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार जब वे अपनी पत्नी के साथ विहार करते-करते मेरु पर्वत पहुंचे तो वहां ऋषि वसिष्ठ के आश्रम पर सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली नंदिनी गौ को देखकर उन्होंने अपने भाइयों के साथ उसका अपहरण कर लिया। जब ऋषि वसिष्ठ को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने द्यौ सहित सभी भाइयों को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब द्यौ तथा उनके भाइयों को ऋषि के शाप के बारे में पता लगा तो वे नंदिनी को लेकर ऋषि के पास क्षमायाचना करने पहुंचे। ऋषि वसिष्ठ ने अन्य वसुओं को एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्ति पाने का कहा लेकिन द्यौ को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए लंबे समय तक मृत्यु लोक में रहने का शाप दिया।
द्यौ ने ही भीष्म के रूप में भरत वंश में जन्म लिया तथा लंबे समय तक धरती पर रहते हुए अपने कर्मों का फल भोगा।.....
आश्वलायन ने पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन किया है। काम्य, नैमित्तिक, वृद्धि, एकोद्दिष्ट तथा पार्वण।....
प्रत्येक परिवार को अपने पितरों का तर्पण करना चाहिए जिससे उनके पितृ तृप्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो एवं आशीर्वाद प्रदान करें।
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