हिन्दू ग्रंथ रामचरित मानस के अनुसार जब शिव भक्ति के घमण्ड में चूर काकभुशुण्डि गुरु का उपहास करने पर भगवान शंकर के शाप से अजगर बने। तब गुरु ने ही अपने शिष्य को शाप से मुक्त कराने के लिए शिव की स्तुति में रुद्राष्टक की रचना की। शिव की इस स्तुति से भक्त का मन भक्ति के भाव और आनंद में इस तरह उतर जाता है कि वह बाहरी दुनिया से मिले नकारात्मक ऊर्जा, तनाव, द्वेष, ईर्ष्या और अंह को दूर कर देता है। सरल शब्दों में यह पाठ मन की अकड़ का अंत कर झुकने के भाव पैदा करता है। इसलिए सावन माह के अलावा भी किसी भी दिन रुद्राष्टक का पाठ धर्म और व्यवहार के नजरिए से शुभ फल ही देता है। यह स्तुति शिव भक्तों में सरल, सरस और भक्तिमय होने से शिव भक्तों को बहुत प्रिय है। धार्मिक दृष्टि से शिव पूजन के बाद इस स्तुति के पाठ से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं।गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया धर्म ग्रंथ श्री रामचरितमानस हर व्यक्ति को परिवार, समाज में रहने और जीने की कला सिखाता है। इसी ग्रंथ में भगवान शंकर के कुछ ऐसे प्रसंग है, जिनसे यह सीख मिलती है कि हर धर्म जन को जीवन में सुख और सम्मान पाने के लिए अपने विचार और व्यवहार से घमण्ड को दूर रखना चाहिए।
हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णन आता है कि शिव उपासना में देव-दानवों द्वारा तरह-तरह से शिव स्तुति के पाठ किए गए है। शिव स्तुति का ऐसा ही पाठ है- रुद्राष्टक। यह पाठ नमामी शमीशान .... से शुरु कर शम्भु प्रसीदति तक पढ़कर या सुनकर हर कोई आनंदित और भक्ति भाव में डूब जाता है। इस रुद्राष्टक में छुपे अध्यात्म और आनंद के पीछे भी यही कारण है कि इसकी रचना अंहकार यानि अकड़ से मिले बुरे फल से मुक्ति के लिए ही हुई। जानते हैं रामचरित मानस में आए रुद्राष्टक की रचना के इस प्रसंग को -
ऋषि कागभुशुण्डि भगवान शिव की भक्ति करते थे। वह शिव के ऐसे भक्त थे कि शिव के अलावा किसी ओर देव की उपासना में विश्वास न था। यहां तक कि वह अपने गुरु के भी विरोधी हो गए, जो शिव के साथ श्रीराम के भी उपासक थे। गुरु के समझाने पर भी वह शिव भक्ति के अहं में नाराज होकर चले गए। इसके बाद कागभुशुण्डि ने एक बार शिव की प्रसन्नता के लिए यज्ञ किया। किंतु अपने गुरु को जान-बुझकर इसमें शामिल होने का बुलावा नहीं भेजा। फिर भी गुरु अपने शिष्य के प्रति स्नेह के कारण स्वयं ही चले आए। लेकिन कागभुशुण्डि ने गुरु का उठकर न स्वागत किया, न सम्मान। इस पर गुरु ने बड़प्पन रखकर शिष्य की नाराजगी मानकर कुछ नहीं कहा।
लेकिन भगवान शंकर जो खुश होने पर मनचाहा सुख देते हैं, किंतु बुरे कर्म और आचरण करने पर दण्ड भी देते हैं, ने शिष्य द्वारा गुरु के इस तरह के अपमान को सहन नहीं किया। भगवान शंकर ने भक्ति के अहंकार में चूर अपने ही भक्त काकभुशुण्डि को गुरु-शिष्य परंपरा की पवित्रता को बनाए रखने के लिए तुरंत अजगर बनकर पेड़ के कोटर में रहने का श्राप दे दिया। ऐसा कर भगवान शंकर ने जगत को गुरु पद की ऊंचाई और महत्व को बताया।इसके बाद अपने शिष्य की इस हालत से दु:खी गुरु ने शिव के कोप और श्राप से छुटकारा दिलाने के लिए शिव से विनती और स्तुति की। ऐसी शिव उपासना से ही रचना हुई - शिव रुद्राष्टक की। गुरु की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने काकभुशुण्डी को शाप से मुक्त कर दिया।
इस प्रकार अपमानित होकर भी गुरु श्री लोमेश ने शिष्य की भलाई कर गुरु-शिष्य संबंधों को नई ऊंचाईयां दी। व्यावहारिक जीवन की नजर से यह कथा संदेश देती है कि जीवन में सफलता, कुशलता, धन या ज्ञान के अहं के मद में चूर होकर बड़े या छोटे किसी भी व्यक्ति का उपहास या अपमान न करें। आपके लक्ष्य प्राप्ति और सफलता में मिले किसी भी व्यक्ति के छोटे से योगदान को भी न भुलाएं और ईर्ष्या से दूर होकर पूरे बड़प्पन के साथ अपनी सफलता में शामिल करें। इससे गुरु-शिष्य ही नहीं हर रिश्ते में विश्वास और मिठास बनी रह सकती है। धार्मिक दृष्टि से यह संदेश है कि शिव किसी भी बुरे आचरण को भी सहन नहीं करते, चाहे फिर वह उनका परम भक्त ही क्यों न हो।
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